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*सावरकर का नाम बदल दो, विनायक से वीर कर दो!*

*सावरकर का नाम बदल दो, विनायक से वीर कर दो!*

भारतीय वार्ता 

 

 

*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*

 

भाई ये तो हद्द ही हो रही है। बार-बार, लगातार, वीर सावरकर को वीर कहने पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। अब राहुल गांधी ने वीर को वीर कहने पर सवाल उठा दिया। और वह भी महाराष्ट्र में यानी वीर साहब के घर में घुसकर। अरे, आप भारत जोड़ने निकले हो, तो जोड़ो भारत, तुम्हें कौन रोक रहा है। जिन्हें भारत जोड़ने का शौक है, जोड़ते रहें। बस तोड़ने वालों के काम में टांग नहीं अडाएं। तोड़ने वालों को अपना काम करने दें। तोड़ने वालों को भी अपने मन की करने की उतनी ही स्वतंत्रता है, जितनी जोड़ने वालों को है। आखिरकार, इंडिया डैमोक्रेसी है। डेमोक्रेसी भी ऐसी-वैसी नहीं, मदर ऑफ डैमोक्रेसी। डैमोक्रेसी की मम्मी के सम्मान में भारत जोड़ने वाले यूजीसी की तरह ‘आदर्श राजा’ से लेकर ‘खाप पंचायतों’ तक की वाह-वाह नहीं करना चाहते हैं, तो न सही, पर कम से कम भारत तोड़ो वालों की अपना काम करने की स्वतंत्रता का सम्मान तो उन्हें भी करना पड़ेगा। आखिर, डैमोक्रेसी में सब बराबर होते हैं। फिर ये सावरकर के वीर होने का भरम तोडऩे में क्यों लग गए!

 

और वीर की वीरता का भरम तोड़ने भी चले हैं, तो कैसे हथियारों से? कभी कहते हैं कि सावरकर ने अंडमान जेल में नौ साल दस महीने में, गोरी हुकूमत से सजा माफ करने की पांच-पांच बार प्रार्थनाएं की थीं। यानी औसतन दो साल में एक माफी की प्रार्थना। सारी जिंदगी राज के प्रति वफादारी और भक्ति निभाने के वादे किए थे, सो ऊपर से। माफी मांगने वाला कैसा वीर! वीर तो भगतसिंह थे, फांसी की सजा से माफी की अर्जी देने के लिए पिता को भी झिड़क दिया और गोरी हुकूमत से मांगा कि हम युद्घ में हैं, युद्घ का धर्म निभाएं और हमेें फांसी देने की जगह, गोली से उड़ाएं। सावरकर अगर वीर थे, तो सिर्फ माफीवीर! माफी मांग-मांग कर गोरों को इतना पका दिया कि उन्होंने न सिर्फ माफी देकर जेल से छोड़ दिया, बल्कि अच्छी खासी पेंशन भी बांध दी कि आगे अगले की कोई प्रार्थना नहीं सुननी पड़े। कभी लोग कहते हैं कि माफी पर छूटने के बाद, वीरता तो छोड़ दो, सावरकर ने गोरी हुकूमत को रत्तीभर शिकायत का मौका देने वाला कोई काम किया हो, तो बता दो? सिर्फ हिंदू-मुसलमान कर के उन्हें खुश ही किया। जिन्ना से पहले, सिर्फ हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान बनवाने का आइडिया दिया, सो ऊपर से।

 

कभी कहते हैं कि काहे की वीरता, जब अंगरेजों के जबर्दस्ती भारत को दूसरे विश्व युद्घ में घसीटने के खिलाफ कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दे दिया, तो सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की पार्टी ने देश की आपदा को अपने लिए अवसर में बदल लिया और बंगाल, पंजाब, सीमांत प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ सरकार बनाकर, गोरों की तरफ से राज किया। उससे भी पेट नहीं भरा तो, गोरों को भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए खूब तिकतिकाया और जब बोस की आजाद हिंद फौज अंगरेजी फौज से लड़ रही थी, वीर साहब ने ब्रिटिश फौज में भर्ती के लिए कैंप लगाए। और जब आजादी से पहले के गोरे राज की वफादारी के किस्सों से पेट नहीं भरता, तो भाई लोग आजादी के बाद गांधी के मर्डर का किस्सा लेकर बैठ जाते हैं। पर गांधी निहत्थे सही, बूढ़े सही, पर गोलियां चलवाना जिगरा तो मांगता ही है। सावरकर के दुश्मन भी, इतनी वीरता से तो इंकार नहीं ही कर सकते हैं!

 

तभी तो मोदी जी ने आजादी की 75वीं सालगिरह पर लाल किले से एलान कर दिया कि अब तक हुआ सो हुआ, अमृतकाल में सिर्फ सावरकर को वीर कहा जाएगा। पर विरोधी उसका भी विरोध कर रहे हैं। न जाने कहां से खोद-खादकर, अंडमान में ही कैद किसी शेर अली का किस्सा निकाल लाए हैं। बताते हैं कि लाट गवर्नर, मेयो जब अंडमान जेल का दौरा करने गया था, तो शेर अली ने चाकू से हमला कर के मेयो को हलाक कर दिया था। जब भगवाइयों के वीर साहब, लाट को माफीनामे भेज रहे थे, तब शेर अली ने लाट को ही साफ कर दिया। फिर वीर कौन हुआ – शेर अली या माफी अली! बेशक, ऊपर-ऊपर से देखने पर किसी को भी लगेगा कि दुश्मन पर सामने से हमला करने वाला, माफी मांगने वाले से बड़ा वीर माना जाना चाहिए। लेकिन, जरा गहराई से देखें तो शेर अली का तो मामला ही कुछ और था।

 

क्या हुआ कि शेर अली ने गोरे लाट को मारा था, क्या हुआ शेर अली ने गोरे लाट को अंडमान की जेल में मारा था, क्या हुआ कि सावरकर ने माफी की चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिखी थीं, शेर अली का मुकाबला वीर सावरकर से नहीं किया जा सकता है। शेर अली तो आतंकवादी था, बल्कि जेहादी आतंकवादी; एक तरफ इस्लाम में और दूसरी ओर हथियारों में विश्वास करने वाला। उससे, उसके रास्ते से, सावरकर की क्या तुलना? बल्कि ऐसे आतंकवादी रास्ते से दूर रहना ही तो, सावरकर की असली वीरता थी। हमें तो शुक्र मनाना चाहिए कि शुरू में जवानी के जोश में गलती हुर्ह सो हुई, जेल का मुंह देखने के बाद सावरकर दोबारा कम से कम खुद, कभी गोली-बंदूक के चक्कर में नहीं पड़े। वर्ना अमृत काल में भारत को जी-20 का अध्यक्ष बनवाने के बाद भी, आंतकवाद की फंडिंग के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में मोदी जी क्या चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मनों को खरी-खरी सुना पाते? वे पलटकर पूछते नहीं कि तुम्हारा आतंकी, वीर ; तो हमारा वीर, आतंकी कैसे? और सिर्फ चीनी-पाकिस्तानी ही क्यों? कश्मीरी भी कहने लगते -- हमारी आजादी, आतंक कैसे! और तो और अर्बन नक्सल भी --यूएपीए लगाते, तो कहते, हम आजादी मांगते हैं, तो क्या तुम अंग्रेज़ी राज बनकर दिखाओगे!

 

वैसे सरकार, सावरकर जी को माफीवीर बताने वालों का मुंह बंद करने का एक आसान उपाय क्यों नहीं कर देती है। जहां इतने सारे नाम बदले जा रहे हैं, सावरकर जी का भी पहला नाम विनायक से बदलकर वीर कर दिया जाए -- अंगरेजी में वीडी का वीडी रहेगा। जब वीर नाम में ही आ जाएगा, फिर वीरता-कायरता का सारा झगड़ा ही हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। नाम पर कोई झगड़ा कर ही कैसे सकता है? न सारे करोड़ीमल, करोड़पति होते हैं और न सारे भागमल, बड़े नसीब वाले। फिर वीर से ही वीर होने की मांग क्यों होगी?

 

*(व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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